Sunday, September 7, 2008

Project Bihar Part 1 : Awakening

This is something i came across a discussion about "Situation in Bihar" from a bihari.
This will touch your nerve for sure especially if you are a Bihari ( Resident of a state called Bihar in India).

भाइयो बुरा लगता है हमको भी बुरा लगता है लेकिन हम अब मानने लगे हैं कि बिहार के दुर्दशा के लिए बिहारी ही दोषी है. बिहार में जो ये भीषण प्रलय आया है ये कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है. ये एक ऐसे घोर अपराध का सीन है जिसमे 35 लाख लोग बरबाद हो गए. किसी ने तो ये अपराध किया. ये कहना कि देश ने बिहार को क्या दिया अनुचित है. बिहारी पहले ये पूछे कि बिहारियों ने बिहार को अब तक क्या दिया. दुनिया ने फलिस्तीन क्रिसिस का क्लिप देखा, इराक क्रिसिस का क्लिप देखा, अफगानिस्तान क्रिसिस का क्लिप देखा, दार्फुर क्रिसिस का क्लिप देखा लेकिन गरीबी का जो नजारा बिहार में बाढ़ से भागते लोगों में देखा वो कहीं नहीं देखा. अधनंगे, भूखे, चिथड़ों में लिपटे लोग जिनके आंखों में सिर्फ़ आंसू था. लोगों ने पूछा सभी बिहारी तो ऐसे नही होते, कोई तो होगा जिसके तन पर ढंग का एक कपड़ा हो? कहाँ है वो? कहाँ गया वो बिहारी जो इन गरीबों के लिए कुछ कर सकता था?
सच तो ये है कि ऐसा बिहारी, बिहार छोड़ कर भाग गया है. बिहार में आज पुरे तन पर कपड़े वाला बिहारी है ही नहीं. कपड़े वाला बिहारी दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और न जाने कहाँ कहाँ है लेकिन बिहार में नही है. जब राज ठाकरे गरीब बिहारियों को पिटवाता है तो ये अपने को आश्वस्त करते है कि गरीब बिहारी का पिटाई हुआ इनका नहीं. फ़िर ये कहते हैं बिहारी मुंबई में दूध बेचने, नौकर आदि का काम करते हैं इसलिए ये सब हो रहा है और इनका भी नाम ख़राब हो रहा है. समस्या ये है कि राज ठाकरे अपने आन्दोलन के प्रति इमानदार नही है. अगर वो इमानदार होता तो सबसे पहले इन कपडेवाले बिहारियों को मुंबई से खदेड़ता नहीं तो कम से कम हाथ जोड़ के इनसे विनती ही करता कि अब आप बिहार लौट जाइए क्योकि आपकी जरूरत बिहार को है. सच्चाई ये है कि जब तक ये कपड़े वाले बिहारी लाखों कि संख्या में ट्रेन और प्लेन भर-भर के बिहार नहीं लौटते बिहार ऐसे ही दरिद्र रहेगा. बिहार में आज स्किल वाले लोग हैं ही नही. लौटो लोगो लौटो, बिहार लौट जाओ. देखो उन गरीब लोगों को जिनका इस बाढ़ में सब कुछ ख़तम हो गया, सोचो तुम भी उन्हीं में से एक हो. आओ बिहार एक नया जिन्दगी जियो. एक दिन सुबह उठो और चुप-चाप बिहार का ट्रेन पकड़ लो और जैसे कड़े संघर्ष से बाहर में एक मुकाम बनाये वैसे ही यहां बिहार में अपने लोगों के बीच एक मुकाम बनाओ. वरना ऐसे ही frustrate की तरह बोलोगे देश ने क्या दिया है.

अरे हम ही भारत देश हैं तो फ़िर ये सवाल का क्या मायना. देखो कैसे अपना भारतीय सशत्र सेना अपने जान की परवाह किए बिना गरीबों में भी गरीब बिहारी के जान और माल को बचा रहे हैं. सोचो अपने भारतीय सेना के बहादुरी के बिना कितने लाख लोग मरते. देश पर सवाल उठाना जायज नहीं हैं क्योकि देश अपने माँ और बाबूजी के समान है. ये एक सीमा तक ही सहयोग कर सकते हैं आगे तो हमे ख़ुद ही करना हैं.

बड़ा द्वंद का सवाल है कि क्या बिहार लौटना व्यावहारिक है? नौकरी, कॉलेज, अमरीका का सपना? कैसे सम्भव होगा बिहार लौटना? शायद जब विप्रो, इन्फोसिस बंगलोर छोड़ के बिहार के सेवा में लग जाए तब. शायद जब फतुहा में इंटेल अपने नए आईसी बनाने का फैक्ट्री लगायेगा तब या फ़िर शायद जब बोइंग खगरिया में अपने नये प्लेन असेम्बली का यूनिट डालेगा तब. कैसा व्यावहारिक सोच है ये? मजबूरी है ये मजबूरी. और मजबूरी से ही आता है कमजोरी. एक मजबूर आदमी व्यावहारिक नहीं सोच सकता है. भाइयो कम से कम हम तो ऐसे व्यवहारिक सोच पे सवाल खड़ा कर ही देंगे. हाँ लेकिन जब कोई महाराणा प्रताप के तरह घास का रोटी खाने पर उतर आए तो वो न तो मजबूर है न कमजोर. सुपौल में कुछ लोग सीसम के पेड़ का पत्ता चबा के दस दिन जिन्दा रहे ऐसे लोगों को मैं ना तो मजबूर, ना ही कमजोर कहूँगा. हम कहते हैं कि क्या बिहारी आज के तारीख में सिर्फ़ पत्थर तोड़ने के ही लायक है? मुझे पता है कि आप अपने को शिल्पकार कहते है. लेकिन ऐसा भी कैसा शिल्पकार जिसे अपने ही शिल्पकारी पे भरोसा नहीं. शिल्पकार तो आप तब कहलाते जब आप अपने शिल्पकारी का भाव पता होता और ख़ुद आप उसको सीधे बाजार में बेचते. किसी दूसरे के लिए पत्थर तोड़ने को शिल्पकारी नहीं कहते हैं. उसको आप मजदूरी कह सकते हैं और चाहे तो मजबूरी भी कह सकते हैं. क्योंकि मजदूरी और मजबूरी में कोई ज्यादा फरक नहीं होता है. शाम के नौ बजे के बाद जितना मौज मना लीजिये लेकिन सुबह आठ बजे के बाद कंपनी में अगले शुक्रवार तक माफिया कानून ही चलता है.

जी हाँ हम उद्यमशीलता की बात कर रहे हैं. अभी एक भाई साहेब आई आई एम, अहमदाबाद से आए और पटना में सब्जी बेचकर पैसा पीटने लगे. जी हाँ हम ऐसे ही उद्यमशीलता की बात कर रहे हैं. अमरीका में एक कहावत है, "जब तुमको जानकारी है तो फ़िर तुम गरीब क्यों हो." सीखे न जी एतना दिन दूसरे के कंपनी में अब अपना कंपनी बिहार में काहे नै शुरू करते हो. जी हाँ एक आदमी वाला कंपनी जिसके नेता आप, मजदूर आप. हो सकता है कुछ दिन घास का रोटी खाना पड़े लेकिन कसम से ई रोटी का मज़ा बंगलोर के बटर नान से ज्यादा है. जो आप अब भी एतना नै कर सकते हैं तो हम यही कहेंगे कि ना तो आपको जानकारी(टेक्नोलॉजी) है, ना ही आपको पता(कस्टमर) है, ना ही आप में इन्नोवेशन(उद्यमशीलता) का ललक है, आप सिर्फ़ पत्थरतोड़ मजदूर बनने के लायक हैं. और यदि आप ने हिम्मत कर लिया तो आगे चल कर आपको स्किल्ल्ड लोगों के सहयोग का जरूरत होगा. तब आपको पता चलेगा बिहार कैसे विसिअस साइकल में फंसा है. आपको एक भी स्किल्ड आदमी नहीं मिलेगा और यदि आपने कुछ एक को अपने छमता अनुसार ट्रेन किया भी तो वो ट्रेंड होने के बाद पहला गाड़ी दिल्ली, मुंबई, पुणे, बंगलोर आदि के लिए पकडेगा. भले ही वो आपका भतीजा हो या भांजा वो आपको बेरहमी से धोका देकर भाग जाएगा. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि वो दबाब में है. उसके सारे दोस्त बड़े बड़े शहरों के बड़े बड़े कॉल सेंटर और आईटी सेंटर में काम करते है. लगता तो ऐसे है जैसे नासा का कंट्रोल सेंटर हो. ऊंचा पगार मिलता है. कहाँ वो बंगलोर का पोश कंपनी, वो गले में कुत्ते का पट्टा, कहाँ ई पटना में बिना साइनबोर्ड वाला कंपनी. पिछला दो महिना से पगार भी नहीं मिला. लेकिन चिंता का कौनो बात नहीं है. कुछ तो घास के रोटी का असर, कुछ समय का अनुभव, सफलता मिलेगा. लोग भी मिलेंगे.

देखिये बाल ठाकरे बोला एक बिहारी सौ बीमारी और हम कहते हैं एक बिहारी सौ पे भारी. लेकिन हम तभी सही होंगे जब हम अपने हिम्मत, हुनर और जुगाड़ से ये साबित करे कि हम सौ लोगों में से एक हैं. का लगता है ई चीनी लोग सब R&D करके आगे बढ़ा क्या, या फ़िर आपका बंगलोर वाला कंपनी कौनो रॉकेट बना रहा है? अरे चोरा लेता है तकनीकी से लेके कस्टमर बेस तक और तुम हो कि एतना दिन से कंपनी में काम कर रहे हो न कस्टमर बेस हाथ लगा न तकनिकी जबकि सच्चाई ये है कि तुम्हारा कंपनी ये तकनिकी और कस्टमर दोनो तुम्हारे ही पत्थरतोड़ मेहनत से ही हासिल करता है. अगर सौ दो सौ बिहारी भी घास का रोटी खाने का फ़ैसला कर ले तो बिहार का मुक्कदर बदला जाएगा. फ़िर कोई बाहर नहीं जायेगा और एक ऐसा शमा बंधेगा कि जो पत्थरतोड़ मजदूर होगा उसको भी यहीं पत्थर तोड़ने मिल जाएगा. इसलिए एगो सदा कागज लीजिए और उसपर लिख डालिए " Project Return To Bihar". फ़िर क्या है बिना किसी कोई ढिंढोरा पीटे तकनीकी से लेके, प्रोडक्ट तक, भावी कस्टमर से लेके कैश फ्लो तक सब लिख डालिए और जब दिखने लगे की आख़िर में ये सम्भव है तो एक दिन सुबह चुप-चाप बिहार का ट्रेन पकड़ लीजिये. अब आपको क्या व्यावहारिक लगता है या क्या नहीं ये तो आपको सोचना है जी, हमने तो ऐसा ही किया. घास का रोटी खा रहे हैं. है अपने ऊपर विश्वास हमको, हम होंगे कामयाब. किसी को एडुकेट नही करना है. अपने आपके हिम्मत को जगाना है. मेरे बिहार के हिम्मतबाज भाइयो,दिखा दो अपने हिम्मत, हुनर और जुगाड़ का कमाल. कूद पडो बिहार के enterprenureship के जंग में. ठीक है माना कि तुम्हारा दो टकइए का नौकरी जाएगा लेकिन सोचो यदि बिहार में सफल हुए तो क्या धमाल मचेगा.

सोचो प्लान करो - बस बहुत हो गया "आ अब लौट चलें". याद रखो बिहार हमी से है. हम हैं तो बिहार है. बिहार के यदि हम न हुए तो कोई नहीं होगा. अपना बिहार, आओ काम करें अकेले में घुटकर नहीं बल्कि अपने लोगों के बीच. हम उदहारण बने लोगों के बीच. लोगों को नेतृत्व दें. हम रोजगार ढूंढें नहीं बल्कि रोजगार का अवसर पैदा करें. बिहार के वर्तमान क्रिमिनल-माफिया और नेतृत्व को दिखाएँ कि थोड़ा सा हुनर, थोड़ा सा जुगाड़ से कैसे revenue generate किया जा सकता है. लेकिन एक दो घास खाने वाले से काम नहीं चलेगा. और भी घास खाने वाले लोग चाहिए. तो सोचना क्या है शुरू कीजिये "Project Return To Bihar". इसके लिए आपको न मेरी न किसी और की बल्कि अपने आपको तैयार करना है. दवाई बनाओ, टेबल कुर्सी बनाओ, चटाई बनाओ, टोकरी बनाओ, स्टील का काम करो, एल्यूमिनियम का काम करो, खाना बनाओ या ट्रक बनाओ, बिजली बनाओ या पल्स्टिक, सॉफ्टवेर या हार्डवेयर, टूथ पेस्ट बनाओ या तेल ....लेकिन अब बिहार में ही ई सब का काम करो. इस निर्णय के लिए किसी नेट्वर्किंग का जरूरत नही हैं. जरूरत है तो बस आपके हुनर, हिम्मत और विश्वास की. हम आगे यहाँ कमेन्ट नहीं करेंगे. हमारा मकसद सिर्फ़ ये था बिहार के समस्या का समाधान हम ख़ुद ही हैं, आप हैं. एक चुटकी में हल सम्भव है लेकिन आपको हिम्मत तो दिखाना पड़ेगा. बांकी आप होशियार लोग हैं और निर्णय आपका ही होगा.

नोट: आशुतोष जी, हम और हमारे कंपनी के लोग, कंपनी के ओर से अपने छमता के अनुसार एक चेक मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करवा आए हैं. आगे भी जो सिचुएशन होगा उसके अनुसार फ़िर से आपस में कुछ पैसा जमा करके मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करवाएंगे. क्या करे ऊँट के मुंह में जीरा होगा ये सब फ़िर भी अगले 6 माह तक कुछ गरीब को जो बाढ़ में सब कुछ खो दिए उनको यहीं पर जीने का दूसरा राह, यानी की इलेक्ट्रॉनिक असेम्बली का ट्रेनिंग, PCB layout का ट्रेनिंग देने का फ़ैसला है. अगर कुछ लोग अच्छा रहा तो जॉब पर रख भी लेंगे बांकी को स्वरोजगार का राह दिखायेंगे. ईंजिनीअरबा ना कामचोर और ट्रेनिंग लेके भाग जाता है बांकी बिहार का लोग बहूत अच्छा और मेहनतकश होता है.
 


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